युद्ध में हार या जीत का असली मानक हसन नसरुल्ला, हिज़्बुल्लाह के नेता, की शहादत ने एक नई बहस छेड़ दी है कि युद्ध में असली जीत और हार का क्या मानक है। उनकी शहादत एक बड़ा नुकसान है, लेकिन जिस सिद्धांत और उद्देश्य के लिए उन्होंने संघर्ष किया, वह आज भी जीवित है। उनका जीवन और बलिदान इस बात का प्रतीक है कि जब किसी कौम के पास एक मजबूत सिद्धांत होता है, तो वह अपने अस्तित्व के लिए लड़ती रहती है। युद्धों का इतिहास हमें सिखाता है कि हार और जीत का निर्णय हमेशा युद्ध के मैदान में लड़ने वालों की संख्या या शहीदों की संख्या पर नहीं होता, बल्कि उस उद्देश्य की सफलता पर होता है जिसके लिए युद्ध लड़ा गया। यही उद्देश्य है जो जातियों को प्रेरित करता है और उन्हें लड़ने के कारण प्रदान करता है। जब भी कोई कौम युद्ध की शुरुआत करती है, वह एक स्पष्ट उद्देश्य से प्रेरित होती है। यह उद्देश्य कुछ भी हो सकता है: स्वतंत्रता, आत्मनिर्णय, राष्ट्रीय सुरक्षा, या किसी सिद्धांत का संरक्षण। युद्ध में भाग लेने वाले लोग विश्वास करते हैं कि वे किसी बड़े कारण के लिए लड़ रहे हैं। यदि यह उद्देश्य पूरा होता है, तो इसे सफलता माना जाता ...
वैसे
तो इस्लाम हर धर्म का आदर करने का आदेश देता है
किसी दुसरे धर्मों (ग़ैर इस्लामी) के प्रतीकों का अपमान करना भी इस्लाम में वर्विज (मना) है पर कुछ लोग एक दुसरे (अपने
इस्लाम) के फिरके के लोगों का अपमान करने की सोचते हैं जो की यह इस्लामी शिक्षा के
विपरीत है। दरअसल ऐसे लोग इस्लाम के दुश्मन होते हैं जो इस्लाम के दुश्मनों के हाथ
मजबूत करते हैं।
अहले
सुन्नत के मुक़द्देसात (प्रतीकों) का अपमान
करना हराम है और जाहिर है कि जो कोई भी शिया के नाम पर अहले सुन्नत के मुक़द्देसात
का अपमान करता है चाहे वो सुन्नी होकर शिया मुक़द्देसात का अपमान करता है वह इस्लाम का
दुश्मन है।
क्या
अहले सुन्नत के मुक़द्देसात (प्रतीकों) का
अपमान जैसे खुलुफा और अहले सुन्नत
के कुछ मनपसंद सहाबा के नाम अशोभनीय तरीके
से लेना जायज़ (वेध) है? दुनिया भर
के शिया धार्मिक केन्द्रों (ईरान और इराक)
के ओलामाओ (विद्वानों) ने फतवा दिया है की
अहले सुन्नत के मुक़द्देसात (प्रतीकों) का
अपमान करना हराम है
अधिक
जानकारी के लिए मैं यहाँ 12 शिया आलिमों (विद्वानों) के फतवे पेश कर रहें हैं
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