युद्ध में हार या जीत का असली मानक हसन नसरुल्ला, हिज़्बुल्लाह के नेता, की शहादत ने एक नई बहस छेड़ दी है कि युद्ध में असली जीत और हार का क्या मानक है। उनकी शहादत एक बड़ा नुकसान है, लेकिन जिस सिद्धांत और उद्देश्य के लिए उन्होंने संघर्ष किया, वह आज भी जीवित है। उनका जीवन और बलिदान इस बात का प्रतीक है कि जब किसी कौम के पास एक मजबूत सिद्धांत होता है, तो वह अपने अस्तित्व के लिए लड़ती रहती है। युद्धों का इतिहास हमें सिखाता है कि हार और जीत का निर्णय हमेशा युद्ध के मैदान में लड़ने वालों की संख्या या शहीदों की संख्या पर नहीं होता, बल्कि उस उद्देश्य की सफलता पर होता है जिसके लिए युद्ध लड़ा गया। यही उद्देश्य है जो जातियों को प्रेरित करता है और उन्हें लड़ने के कारण प्रदान करता है। जब भी कोई कौम युद्ध की शुरुआत करती है, वह एक स्पष्ट उद्देश्य से प्रेरित होती है। यह उद्देश्य कुछ भी हो सकता है: स्वतंत्रता, आत्मनिर्णय, राष्ट्रीय सुरक्षा, या किसी सिद्धांत का संरक्षण। युद्ध में भाग लेने वाले लोग विश्वास करते हैं कि वे किसी बड़े कारण के लिए लड़ रहे हैं। यदि यह उद्देश्य पूरा होता है, तो इसे सफलता माना जाता ...
लेखक : मानसी मिश्र ऐसा कम ही होता है जब बेघर लोगों में हम कोई रिश्ता तलाश पाते हों। पुरानी दिल्ली निवासी इर्तजा कुरैशी भी हमारे-आपके जैसे दिल्ली के एक युवा हैं। मगर, एक घटना ने इन्हें इस कदर बदला कि वह बेघरों के अभिभावक बन गए। इर्तजा ने 14 बेघरों के लिए ‘मरहम’ नाम से एक ऐसा घर बनाया है जहां न सिर्फ उन्हें छत मिल रही है, बल्कि काम, रिश्ता और इज्जत की जिन्दगी भी मिल रही है। इर्तजा बताते हैं कि वर्ष 2005 में एक दिन अचानक मेरे पिता लापता हो गए। मैं, मेरी मां, बहन सभी उन्हें हर जगह, हर रिश्तेदार के घर खोजते रहे पर उनका कोई पता नहीं चला। वक्त बीता, हमारी जिन्दगी पटरी पर आने लगी। मैं एक बड़ी कंपनी में नौकरी करने लगा। मगर, जब भी मैं सड़क किनारे बैठे अजनबियों को देखता तो यूं लगता कि कहीं किसी फुटपाथ पर ऐसे ही मेरे पिता भी न बैठे हों। मैं भीतर तक सिहर जाता। मन में आया कि ये भी तो किसी न किसी के रिश्तेदार होंगे। इन ख्यालों ने ही ‘मरहम’ का रूप कब धर लिया पता ही नहीं चला। मैंने वर्ष 2013 में रिश्तेदारों, दोस्तों और करीबियों से बात की। कुछ पैसे जुटाए और जामा मस्जिद इलाके में जगत सिनेमा के प...