युद्ध में हार या जीत का असली मानक हसन नसरुल्ला, हिज़्बुल्लाह के नेता, की शहादत ने एक नई बहस छेड़ दी है कि युद्ध में असली जीत और हार का क्या मानक है। उनकी शहादत एक बड़ा नुकसान है, लेकिन जिस सिद्धांत और उद्देश्य के लिए उन्होंने संघर्ष किया, वह आज भी जीवित है। उनका जीवन और बलिदान इस बात का प्रतीक है कि जब किसी कौम के पास एक मजबूत सिद्धांत होता है, तो वह अपने अस्तित्व के लिए लड़ती रहती है। युद्धों का इतिहास हमें सिखाता है कि हार और जीत का निर्णय हमेशा युद्ध के मैदान में लड़ने वालों की संख्या या शहीदों की संख्या पर नहीं होता, बल्कि उस उद्देश्य की सफलता पर होता है जिसके लिए युद्ध लड़ा गया। यही उद्देश्य है जो जातियों को प्रेरित करता है और उन्हें लड़ने के कारण प्रदान करता है। जब भी कोई कौम युद्ध की शुरुआत करती है, वह एक स्पष्ट उद्देश्य से प्रेरित होती है। यह उद्देश्य कुछ भी हो सकता है: स्वतंत्रता, आत्मनिर्णय, राष्ट्रीय सुरक्षा, या किसी सिद्धांत का संरक्षण। युद्ध में भाग लेने वाले लोग विश्वास करते हैं कि वे किसी बड़े कारण के लिए लड़ रहे हैं। यदि यह उद्देश्य पूरा होता है, तो इसे सफलता माना जाता ...
इस्लाम की शिक्षा एक नया मुस्लिम ईसाइ नौजवान ‘‘ ज़करिया बिन इब्राहीम‘‘ इमाम सादिक़ (अ) की खि़दमत में हाजि़र हुआ और कहने लगा के: मेरी बूढ़ी और नाबीना (अंधी) माँ ईसाइ है। इमाम (अ) ने फ़रमाया के: अपनी माँ की देख भाल करो और उसके साथ एहसान और नेकी से पेश आओ। जिस वक़्त ज़करिया अपनी माँ के पास वापस गया तो इमाम के हुक्म के मुताबिक़ अपनी माँ से बहुत मेहरबानी से पेश आने लगा। एक रोज़ माँ ने ज़करिया से मालूम किया के: बेटा! किस वजह से तू मेरी इतनी खि़दमत और देख भाल कर रहा है? ज़करयिा ने जवाब दिया के: ऐ मादर ! मेरे मौला (इमाम सादिक़ (अ)) जो ख़ातमुल अंबिया हज़रत मुहम्मद (स) की नस्ल से हैं, ने हुक्म दिया है के मैं तुम्हारी देख भाल और खि़दमत में मशग़ूल रहँू। माँ ने सवालात के बाद कहा के: ऐ बेटा ! दीने इस्लाम बेहतरीन दीन है। इस दीन की मुझे भी तालीम दो ताके मैं मुसलमान हो जाऊँ। (बिहारुल अनवार, अल्लामा मजलिसी, जिल्द 71, पेज 53, बाब 2, हदीस न0 11 का ख़ुलासा ) Via - Paighambar Nauganvi