युद्ध में हार या जीत का असली मानक हसन नसरुल्ला, हिज़्बुल्लाह के नेता, की शहादत ने एक नई बहस छेड़ दी है कि युद्ध में असली जीत और हार का क्या मानक है। उनकी शहादत एक बड़ा नुकसान है, लेकिन जिस सिद्धांत और उद्देश्य के लिए उन्होंने संघर्ष किया, वह आज भी जीवित है। उनका जीवन और बलिदान इस बात का प्रतीक है कि जब किसी कौम के पास एक मजबूत सिद्धांत होता है, तो वह अपने अस्तित्व के लिए लड़ती रहती है। युद्धों का इतिहास हमें सिखाता है कि हार और जीत का निर्णय हमेशा युद्ध के मैदान में लड़ने वालों की संख्या या शहीदों की संख्या पर नहीं होता, बल्कि उस उद्देश्य की सफलता पर होता है जिसके लिए युद्ध लड़ा गया। यही उद्देश्य है जो जातियों को प्रेरित करता है और उन्हें लड़ने के कारण प्रदान करता है। जब भी कोई कौम युद्ध की शुरुआत करती है, वह एक स्पष्ट उद्देश्य से प्रेरित होती है। यह उद्देश्य कुछ भी हो सकता है: स्वतंत्रता, आत्मनिर्णय, राष्ट्रीय सुरक्षा, या किसी सिद्धांत का संरक्षण। युद्ध में भाग लेने वाले लोग विश्वास करते हैं कि वे किसी बड़े कारण के लिए लड़ रहे हैं। यदि यह उद्देश्य पूरा होता है, तो इसे सफलता माना जाता ...
पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब जिस रास्ते से गुजरते थे उस पर रोजाना एक बुढ़िया कूड़े फेंक देती थी
,आप खुद पर पड़े कूड़े को साफ़ करके आगे निकल जाते थे,ये सिलसिला कई रोज़ चला ,एक रोज़ कूड़ा ऊपर से नही फेंका गया ,दूसरे रोज़ भी ,तो पैगम्बर साहब ने अपने अनुयायियों से पूछा की वो बूढी औरत कहाँ है,लोगों ने बताया की वो बीमार है !
आप तुरंत उसका हाल चाल लेने उसके घर जा पहुचे ,बुढ़िया आपको देख कर घबराई और कहने लगी आज जब मैं बीमार हूँ,कमज़ोर हूँ तो तुम मुझसे बदला लेने आये हो ,पैगम्बर साहब ने इतना सुनते ही कहा 'नही ,मैं तो आपकी मिजाजपुर्सी के लिए आया हूँ,ये देखने आया हूँ की अब तुम ठीक हो ! यह सुनना था और उस बूढी महिला ने पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब से माफ़ी मांगी और अल्लाह पर ईमान ले आई और मुस्लमान हो गई! इस कथा से साफ साफ मालूम हो जाता है इस्लाम लोगों से मोहब्बत करना सिखाता है नफरत करना मुसलमानों का धर्म नही , पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब की सहनशीलता पुरे विश्व के लिए सीख का मार्ग है।
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