युद्ध में हार या जीत का असली मानक हसन नसरुल्ला, हिज़्बुल्लाह के नेता, की शहादत ने एक नई बहस छेड़ दी है कि युद्ध में असली जीत और हार का क्या मानक है। उनकी शहादत एक बड़ा नुकसान है, लेकिन जिस सिद्धांत और उद्देश्य के लिए उन्होंने संघर्ष किया, वह आज भी जीवित है। उनका जीवन और बलिदान इस बात का प्रतीक है कि जब किसी कौम के पास एक मजबूत सिद्धांत होता है, तो वह अपने अस्तित्व के लिए लड़ती रहती है। युद्धों का इतिहास हमें सिखाता है कि हार और जीत का निर्णय हमेशा युद्ध के मैदान में लड़ने वालों की संख्या या शहीदों की संख्या पर नहीं होता, बल्कि उस उद्देश्य की सफलता पर होता है जिसके लिए युद्ध लड़ा गया। यही उद्देश्य है जो जातियों को प्रेरित करता है और उन्हें लड़ने के कारण प्रदान करता है। जब भी कोई कौम युद्ध की शुरुआत करती है, वह एक स्पष्ट उद्देश्य से प्रेरित होती है। यह उद्देश्य कुछ भी हो सकता है: स्वतंत्रता, आत्मनिर्णय, राष्ट्रीय सुरक्षा, या किसी सिद्धांत का संरक्षण। युद्ध में भाग लेने वाले लोग विश्वास करते हैं कि वे किसी बड़े कारण के लिए लड़ रहे हैं। यदि यह उद्देश्य पूरा होता है, तो इसे सफलता माना जाता ...
एक दिन इमाम हसन (अ) घोड़े पर सवार कहीं जा रहे थे कि शाम अर्थात मौजूदा सीरिया का रहने वाला एक इंसान रास्ते में मिला। उस आदमी ने इमाम हसन को बुरा भला कहा और गाली देना शुरू कर दिया। इमाम हसन (अ) चुपचाप उसकी बातें सुनते रहे, जब वह अपना ग़ुस्सा उतार चुका तो इमाम हसन (अ) ने उसे मुसकुरा कर सलाम किया और कहने लगेः
ऐ शेख़, मेरे विचार में तुम यहां अपरिचित हो और तुमको धोखा हो रहा है, अगर भूखे हो तो तुम्हें खाना खिलाऊं, अगर कपड़े चाहिये तो कपड़े पहना दूं, अगर ग़रीब हो तो तुम्हरी ज़रूरत पूरी कर दूं, अगर घर से निकाले हुये हो तो तुमको पनाह दे दूं और अगर कोई और ज़रूरत हो तो उसे पूरा करूं। अगर तुम मेरे घर आओ और जाने तक मेरे घर में ही रहो तो तुम्हारे लिये अच्छा होगा क्योंकि मेरे पास एक बड़ा घर है तथा मेहमानदारी का सामान भी मौजूद है।
सीरिया के उस नागरिक ने जब यह व्यवहार देखा तो पछताने और रोने लगा और इमाम को संबोधित करके कहने लगाः मैं गवाही देता हूं कि आप ज़मीन पर अल्लाह के प्रतिनिधि हैं तथा अल्लाह अच्छी तरह जानता है कि अपना प्रतिनिधित्व किसे प्रदान करे। आप से मिलने से पहले आपके पिता और आप मेरी निगाह में लोगों के सबसे बड़े दुश्मन थे और अब मेरे लिये सबसे से अच्छे हैं।

इतिहास में आया है कि किसी भी ग़रीब व फ़क़ीर को उन्होने अपने पास से बिना उसकी समस्या का समाधान किये जाने नहीं दिया। किसी ने सवाल किया कि आप किसी मांगने वाले को कभी ख़ाली हाथ क्यों नहीं लौटाते। तो उन्होने जवाब दिया“ मैं ख़ुद अल्लाह के दरवाज़े का भिखारी हूं,और उससे आस लगाये रहता हूं, इसलिये मुझे शर्म आती है कि ख़ुद मांगने वाला होते हुये दूसरे मांगने वाले को ख़ाली हाथ भेज दूं। अल्लाह ने मेरी आदत डाली है कि लोगों पर ध्यान दूं और अल्लाह की अनुकंपायें उन्हें प्रदान करूं।”
इमाम हसन (अ) ने 48 साल से ज़्यादा इस दुनिया में अपनी रौशनी नहीं बिखेरी लेकिन इस छोटी सी अवधि में भी उनका समय भ्रष्टाचारियों से लगातार जंग में ही बीता। अपने पिता की शहादत के बाद इमाम हसन (अ) ने देखा कि निष्ठावान व वफ़ादार साथी बहुत कम हैं इसलिये मोआविया से जंग का कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकलेगा इसलिये उन्होने मुआविया द्वारा प्रस्तावित सुलह को अपनी शर्तों के साथ स्वीकार कर लिया। इस शान्ति संधि का नतीजा यह निकला कि वास्तविक मुसलमानों को ख़्वारिज के हमलों से नजात मिल गयी और जंग में उनकी जानें भी नहीं गईं।
इमाम हसन(अ) के ज़माने के हालात के बारे में आयतुल्लाह ख़ामेनई कहते हैं“ हर क्रान्तिकारी व इंक़ेलाबी के लिये सबसे कठिन समय वह होता है जब सत्य व असत्य आपस में बिल्कुल मिले हुये हों-----(इस हालत को निफ़ाक़ या मित्थ्या कहते हैं) इमाम हसन के ज़माने में निफ़ाक़ की उड़ती धूल हज़रत अली के ज़माने से बहुत ज़्यादा गाढ़ी थी इमाम हसने मुज्तबा (अ) जानते थे कि उन थोड़े से साथियों व सहायकों के साथ अगर मुआविया से जंग के लिये जाते हैं और शहीद हो जाते हैं तो इस्लामी समाज के प्रतिष्ठत लोगों पर छाया हुआ नैतिक भ्रष्टाचार उनके ख़ून (के प्रभाव) को अर्थात उनके लक्ष्य को आगे बढ़ने नहीं देगा। प्रचार, पैसा और मुआविया की कुटिलता, हर चीज़ पर छा जायेगी तथा दो एक साल बीतने के बाद लोग कहने लगेंगे कि इमाम हसन(अ) व्यर्थ में ही मुआविया के विरोध में खड़े हुये। इसलिये उन्होने सभी कठिनाइयां सहन कीं लेकिन ख़ुद को शहादत के मैदान में जाने नहीं दिया,क्योंक् जानते थे कि उनका ख़ून अकारत हो जायेगा।
इस आधार पर इमाम हसन(अ) की एक विशेषता उनका इल्म व बुद्धिमत्ता थी। पैगम्बरे इस्लाम (स) इमाम हसन (अ) की बुद्धिमत्ता के बारे में कहते “ अगर अक़्ल को किसी एक आदमी में साकार होना होता तो वह आदमी अली के बेटे हसन होते ।”
इमाम हसन (अ) के शुभ जन्मदिवस की एक बार फिर मुबारकबाद देते हुये हम अल्लाह से दुआ करते हैं कि हम सब को इस नूरानी महीने की बरकतों से मालामाल करे।
Via - abna
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