युद्ध में हार या जीत का असली मानक हसन नसरुल्ला, हिज़्बुल्लाह के नेता, की शहादत ने एक नई बहस छेड़ दी है कि युद्ध में असली जीत और हार का क्या मानक है। उनकी शहादत एक बड़ा नुकसान है, लेकिन जिस सिद्धांत और उद्देश्य के लिए उन्होंने संघर्ष किया, वह आज भी जीवित है। उनका जीवन और बलिदान इस बात का प्रतीक है कि जब किसी कौम के पास एक मजबूत सिद्धांत होता है, तो वह अपने अस्तित्व के लिए लड़ती रहती है। युद्धों का इतिहास हमें सिखाता है कि हार और जीत का निर्णय हमेशा युद्ध के मैदान में लड़ने वालों की संख्या या शहीदों की संख्या पर नहीं होता, बल्कि उस उद्देश्य की सफलता पर होता है जिसके लिए युद्ध लड़ा गया। यही उद्देश्य है जो जातियों को प्रेरित करता है और उन्हें लड़ने के कारण प्रदान करता है। जब भी कोई कौम युद्ध की शुरुआत करती है, वह एक स्पष्ट उद्देश्य से प्रेरित होती है। यह उद्देश्य कुछ भी हो सकता है: स्वतंत्रता, आत्मनिर्णय, राष्ट्रीय सुरक्षा, या किसी सिद्धांत का संरक्षण। युद्ध में भाग लेने वाले लोग विश्वास करते हैं कि वे किसी बड़े कारण के लिए लड़ रहे हैं। यदि यह उद्देश्य पूरा होता है, तो इसे सफलता माना जाता ...
जैसे ही नवासा ए रसूल (स) हज़रत इमाम हुसैन (अ) के क़याम व शहादत का महीना, मोहर्रम शुरु होता है वैसे ही एक ख़ास सोच के लोग इस याद और तज़करे को कमरंग करने की कोशिशें शुरु कर देते हैं। कभी रोने (जो सुन्नते रसूल है) की मुख़ालफ़त की जाती है, तो कभी आशूर के रोज़े की इतना प्रचार किया जाता है जिस से ऐसा महसूस होता है के 10 मोहर्रम 61 हिजरी में कोई हादसा हुआ ही नहीं था। बल्कि सिर्फ़ बनी इस्राईल की नजात की ख़ुशी का दिन है और बाज़ इस्लामी देश तो इस का ऐलान और प्रचार सरकारी पैमाने पर करते हैं और दलील के तौर पर बुख़ारी वग़ैरा की हदीसें पेश की जाती हैं, अभी कुछ साल पहले की बात है के सऊदी अरब की न्यूज़ ऐजंसी ने अपने एक बयान में अबदुल अज़ीज़ बिन अबदुल्लाह बिन मुहम्मद आले शैख़ की जानिब से ऐलान किया था के पैग़म्बर (स) से रिवायत हुई है केः
आँहज़रत (स) आशूर के दिन रोज़ा रखते थे और लोगों को भी इस दिन रोज़ा रखने का शौक़ दिलाते थे, क्योंकि आशूरा वो दिन है जिस रोज़ ख़ुदावंदे आलम ने मूसा और उनकी क़ौम को फि़रऔन और उसकी क़ौम से निजात दी थी लेहाज़ा हर मुसलमान मर्द और औरत पर मुस्तहब है के 10 मोहर्रम को ख़ुदा के शुकराने के तौर पर रोज़ा रखें।
तअज्जुब है ! हमने सऊदी सरकार का कोई बयान हादसा ए आशूरा के बारे में न पढ़ा जिस में नवासा ए रसूल (स) की दिलसोज़ शहादत पर रंजो अलम का इज़हार किया गया हो, नबी ए इस्लाम (स) की पैरवी का दावा करने के बावजूद भी अपने नबी (स) के नवासे से इतनी बेरुख़ी! और बनी इस्राईल की नजात की यादगार से इतनी दिलचस्पी!?
अगर नबी (स) और उनकी क़ौम की नजात पर रोज़ा रखना मुस्तहब है तो फिर जिस दिन जनाबे इब्राहीम (अ) को ख़ुदा ने नमरुद की आग से नजात दी उस दिन भी रोज़ा रखना चाहिए, जिस दिन जनाबे नूह (अ) की कश्ती कोहे जूदी पर ठहरी और उनहें इनके साथियों समीत डूबने से नजात मिली उस दिन भी रोज़ा रखना मुस्तहब होना चाहिए, और ये दिन वो था जब सूरज बुर्जे हमल में जाता है जो ईसवी कलेंडर में 21 मार्च को होता है, रसूल अल्लाह (स) अगर जनाबे मूसा (अ) और उनके साथियों की नजात पर शुकराने का रोज़ा रखेंगे तो फिर दीगर अम्बिया की नजात पर भी रोज़ा रखा होगा, अगर रखा होगा तो 21 मार्च को रोज़ा रखने का प्रचार इस पैमाने पर क्यों नहीं किया जाता, ये रोज़े भी तो सुन्नत कहलाऐंगे ?
अब आईए बुख़ारी की उन रिवायतों पर तहक़ीक़ी निगाह डालते हैं जिनको बुनयाद बनाकर आशूर के रोज़े का प्रचार किया जाता है, जनाबे आएशा (र) से बुख़ारी में एक रिवायत इस तरह है केः
आशूर के दिन ज़माना ए जाहेलियत में क़ुरैश रोज़ा रखते थे, रसूले ख़ुदा (स) भी इस रोज़ (आशूर) को रोज़ा रखते थे और जिस वक़्त आप मदीना तशरीफ़ लाए तो आशूर के रोजे़ को उसी तरह बाक़ी रखा और दूसरों को भी हुक्म दिया, यहाँ तक के माहे रमज़ान के रोज़े वाजिब हो गए, इसके बाद आँहज़रत (स) ने आशूर का रोज़ा छोड़ दिया और हुक्म दिया के जो चाहे आशूर के दिन रोज़ा रखे और जो चाहे न रखे।
(सही बुख़ारी, जिल्द 2, पेज 250, हदीस 2002, किताब अलसौम, बाब 69 बाब सीयामे यौमे आशूरा, मुहक्किक़ मुहम्मद ज़ुहैर बिन नासिर अल नासिर, नाशिर दारुल तौक़ अल नजात, पहला एडीशन 1422 हिजरी)
मज़कूरा रिवायत के सिलसिला ए सनद में हश्शाम बिन उरवाह मौजूद है जिसकी वजह से सिलसिला ए सनद में इशकाल पैदा हो गया है क्योंकि इब्ने क़त्तान ने हश्शाम बिन उरवाह के बारे में कहा है केः ये (हश्शाम बिन उरवाह) मैटर को बदल डालता था और ग़लत को सही में मिला दिया करता था।
अल्लामा ज़हबी ने कहा है के ये कुछ महफ़ूज़ बातों को भूल जाया करता था या उसमें शक हो जाता था।
(मीज़ानुल ऐतदाल, जिल्द 4, पेज 301, तहक़ीक़ अली मुहम्मद अलबहावी, नाशिर दारुल मारफ़त लिलतबाअत वन्नश्र, बैरुत, लेबनान, 1963 ई0)
इसके अलावा ये रिवायत बुख़ारी ही की दूसरी रिवायतों से तनाक़ुज़ रखती है और टकरा रही है, जैसे सही बुख़ारी में इब्ने अब्बास से एक रिवायत है के:
जब रसूले ख़ुदा (स) ने मक्का से मदीना हिजरत फ़रमाई और मदीना तशरीफ़ लाए तो यहूदयों को देखा के आशूर के दिन रोज़ा रखे हुए हैं तो आप (स) ने फ़रमाया के ये रोज़ा (उन्होने) क्यों रखा है?
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आँहज़रत (स) आशूर के दिन रोज़ा रखते थे और लोगों को भी इस दिन रोज़ा रखने का शौक़ दिलाते थे, क्योंकि आशूरा वो दिन है जिस रोज़ ख़ुदावंदे आलम ने मूसा और उनकी क़ौम को फि़रऔन और उसकी क़ौम से निजात दी थी लेहाज़ा हर मुसलमान मर्द और औरत पर मुस्तहब है के 10 मोहर्रम को ख़ुदा के शुकराने के तौर पर रोज़ा रखें।
तअज्जुब है ! हमने सऊदी सरकार का कोई बयान हादसा ए आशूरा के बारे में न पढ़ा जिस में नवासा ए रसूल (स) की दिलसोज़ शहादत पर रंजो अलम का इज़हार किया गया हो, नबी ए इस्लाम (स) की पैरवी का दावा करने के बावजूद भी अपने नबी (स) के नवासे से इतनी बेरुख़ी! और बनी इस्राईल की नजात की यादगार से इतनी दिलचस्पी!?
अगर नबी (स) और उनकी क़ौम की नजात पर रोज़ा रखना मुस्तहब है तो फिर जिस दिन जनाबे इब्राहीम (अ) को ख़ुदा ने नमरुद की आग से नजात दी उस दिन भी रोज़ा रखना चाहिए, जिस दिन जनाबे नूह (अ) की कश्ती कोहे जूदी पर ठहरी और उनहें इनके साथियों समीत डूबने से नजात मिली उस दिन भी रोज़ा रखना मुस्तहब होना चाहिए, और ये दिन वो था जब सूरज बुर्जे हमल में जाता है जो ईसवी कलेंडर में 21 मार्च को होता है, रसूल अल्लाह (स) अगर जनाबे मूसा (अ) और उनके साथियों की नजात पर शुकराने का रोज़ा रखेंगे तो फिर दीगर अम्बिया की नजात पर भी रोज़ा रखा होगा, अगर रखा होगा तो 21 मार्च को रोज़ा रखने का प्रचार इस पैमाने पर क्यों नहीं किया जाता, ये रोज़े भी तो सुन्नत कहलाऐंगे ?
अब आईए बुख़ारी की उन रिवायतों पर तहक़ीक़ी निगाह डालते हैं जिनको बुनयाद बनाकर आशूर के रोज़े का प्रचार किया जाता है, जनाबे आएशा (र) से बुख़ारी में एक रिवायत इस तरह है केः
आशूर के दिन ज़माना ए जाहेलियत में क़ुरैश रोज़ा रखते थे, रसूले ख़ुदा (स) भी इस रोज़ (आशूर) को रोज़ा रखते थे और जिस वक़्त आप मदीना तशरीफ़ लाए तो आशूर के रोजे़ को उसी तरह बाक़ी रखा और दूसरों को भी हुक्म दिया, यहाँ तक के माहे रमज़ान के रोज़े वाजिब हो गए, इसके बाद आँहज़रत (स) ने आशूर का रोज़ा छोड़ दिया और हुक्म दिया के जो चाहे आशूर के दिन रोज़ा रखे और जो चाहे न रखे।
(सही बुख़ारी, जिल्द 2, पेज 250, हदीस 2002, किताब अलसौम, बाब 69 बाब सीयामे यौमे आशूरा, मुहक्किक़ मुहम्मद ज़ुहैर बिन नासिर अल नासिर, नाशिर दारुल तौक़ अल नजात, पहला एडीशन 1422 हिजरी)
मज़कूरा रिवायत के सिलसिला ए सनद में हश्शाम बिन उरवाह मौजूद है जिसकी वजह से सिलसिला ए सनद में इशकाल पैदा हो गया है क्योंकि इब्ने क़त्तान ने हश्शाम बिन उरवाह के बारे में कहा है केः ये (हश्शाम बिन उरवाह) मैटर को बदल डालता था और ग़लत को सही में मिला दिया करता था।
अल्लामा ज़हबी ने कहा है के ये कुछ महफ़ूज़ बातों को भूल जाया करता था या उसमें शक हो जाता था।
(मीज़ानुल ऐतदाल, जिल्द 4, पेज 301, तहक़ीक़ अली मुहम्मद अलबहावी, नाशिर दारुल मारफ़त लिलतबाअत वन्नश्र, बैरुत, लेबनान, 1963 ई0)
इसके अलावा ये रिवायत बुख़ारी ही की दूसरी रिवायतों से तनाक़ुज़ रखती है और टकरा रही है, जैसे सही बुख़ारी में इब्ने अब्बास से एक रिवायत है के:
जब रसूले ख़ुदा (स) ने मक्का से मदीना हिजरत फ़रमाई और मदीना तशरीफ़ लाए तो यहूदयों को देखा के आशूर के दिन रोज़ा रखे हुए हैं तो आप (स) ने फ़रमाया के ये रोज़ा (उन्होने) क्यों रखा है?
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