युद्ध में हार या जीत का असली मानक हसन नसरुल्ला, हिज़्बुल्लाह के नेता, की शहादत ने एक नई बहस छेड़ दी है कि युद्ध में असली जीत और हार का क्या मानक है। उनकी शहादत एक बड़ा नुकसान है, लेकिन जिस सिद्धांत और उद्देश्य के लिए उन्होंने संघर्ष किया, वह आज भी जीवित है। उनका जीवन और बलिदान इस बात का प्रतीक है कि जब किसी कौम के पास एक मजबूत सिद्धांत होता है, तो वह अपने अस्तित्व के लिए लड़ती रहती है। युद्धों का इतिहास हमें सिखाता है कि हार और जीत का निर्णय हमेशा युद्ध के मैदान में लड़ने वालों की संख्या या शहीदों की संख्या पर नहीं होता, बल्कि उस उद्देश्य की सफलता पर होता है जिसके लिए युद्ध लड़ा गया। यही उद्देश्य है जो जातियों को प्रेरित करता है और उन्हें लड़ने के कारण प्रदान करता है। जब भी कोई कौम युद्ध की शुरुआत करती है, वह एक स्पष्ट उद्देश्य से प्रेरित होती है। यह उद्देश्य कुछ भी हो सकता है: स्वतंत्रता, आत्मनिर्णय, राष्ट्रीय सुरक्षा, या किसी सिद्धांत का संरक्षण। युद्ध में भाग लेने वाले लोग विश्वास करते हैं कि वे किसी बड़े कारण के लिए लड़ रहे हैं। यदि यह उद्देश्य पूरा होता है, तो इसे सफलता माना जाता ...
नवाबो ने हमेशा भाईचारे को बढ़ावा दिया। हमारे पूर्वजों ने मुस्लिम आबादी में मंदिर बनवाकर मिसाल कायम की। मंदिर को और भव्य बनाने की तैयारी चल रही है।1- नवाब काजिम अली खां उर्फ नवेद मियां, पूर्व मंत्री और नवाबों के वंशजनवाबो ने हमेशा भाईचारे को बढ़ावा दिया। हमारे पूर्वजों ने मुस्लिम आबादी में मंदिर बनवाकर मिसाल कायम की। मंदिर को और भव्य बनाने की तैयारी चल रही है।:- नवाब काजिम अली खां उर्फ नवेद मियां, पूर्व मंत्री और नवाबों के वंशज
लेखक : संजीव शर्मा (रामपुर) :सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल देखने को मिलती है श्री पातालेश्वर महादेव शिव मंदिर भमरौआ में। जहां हिंदू ही नहीं मुस्लिम भी दर्शन करने आते हैं, प्रसाद चढ़वाते हैं और भंडारा ग्रहण करते हैं। मुस्लिम आबादी के बीच बने इस मंदिर का निर्माण करीब दो सौ साल पहले रामपुर के तत्कालीन नवाब ने करवाया था। मंदिर की मान्यता भी बड़ी है। सावन माह में लाखों श्रद्धालु यहां पूजा-अर्चना करने आते हैं और जलाभिषेक करते हैं। मंदिर के पुजारी पंडित नरेश कुमार शर्मा बताते हैं कि मुस्लिम भी मंदिर में आते हैं। वे हमें प्रसाद देकर कहते हैं कि यह हमारी तरफ से चढ़ा देना। जिस पर हम उनका प्रसाद भगवान भोलेनाथ को चढ़ाकर उन्हें वापस कर देते हैं। मंदिर में मुसलमान भी भंडारा खाते हैं और वे यहां लगने वाले मेले में सहयोग करते हैं। गांव के मुहम्मद अली का कहना है कि मंदिर में ज्यादातर समय भंडारे होते हैं। हम भी निसंकोच भंडारे में प्रसाद ग्रहण करते हैं। एक अन्य मुस्लिम भूरा का कहना है कि मंदिर की मान्यता बहुत है। हमारा काम फेरी लगाने का है, जिसके कारण हमें कई गांवों में जाना होता है। कई बार आस-पास के गांव के लोगों को जब पता चलता है कि हम भमरौआ गांव के रहने वाले हैं, तो वे हम से ही कह देते हैं कि किसी कारणवश मंदिर नहीं जा पा रहे, आप हमारी ओर से मंदिर में प्रसाद चढ़वा देना। हमने कई बार मंदिर के पुजारी से उनका प्रसाद चढ़वाया है।
मंदिर का इतिहास : मंदिर के पुजारी पंडित नरेश कुमार शर्मा ने बताया कि ग्राम भमरौआ में मंदिर के स्थान पर पहले बंजर भूमि थी। सन 1788 में लोगों को महादेव शिवलिंग का पता चला। रामपुर के तत्कालीन नवाब अहमद अली खां को जानकारी हुई तो उन्होंने इसके बारे में पंडितों से राय ली और यहां पर मंदिर बनवाने की योजना तैयार की । सन 1822 में मंदिर बनवाकर पंडित दयाल दास को इसकी जिम्मेदारी सौंपी।
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